यूँही कहीं चलते हुए इन रास्तों पर मैं कभी अपने आप से मिल जाता हूँ
हैरानी होती है की मैं खुद को ही कितना कम जानता हूँ
इन चंद छोटी मुल्कातों में, जितना भी मैं अपने को जान पाया हूँ
उस से एक चाह उठी है खुद को और जानने की, खुद से ही और मिलने की
यूँही कहीं चलते हुए इन रास्तों पर मैं कभी अपने आप से मिल जाता हूँ
अचंभा होता है की कैसे में कुछ ऐसे काम कर देता हूँ जो मुझे ही चकित कर जाते हैं
कहते हैं हर एक में भगवान बसता है, ऐसा भी होता है कभी की उस शक्ति के दर्शन हो जाते हैं
इक सूकून मिलता है की इस भीड़ भाद भरी भागती ज़िन्दगी में भी मैं उसे नहीं खोया हूँ
यूँही कहीं चलते हुए इन रास्तों पर मैं कभी अपने आप से मिल जाता हूँ
शर्मिंदा हो जाता हूँ जब खुद मैं ही बसे रावण से मिलना हो जाता है
कभी ऐसा भी सोचता हूँ की कहीं ऐसा तो नहीं की राम और रावण कभी दो अलग लोग थे ही नहीं
थे तो हम सब का हिस्सा, थे वो हमारे ही खुद का हिस्सा, जो अलग अलग समय पर उभर कर आते हैं सामने
तो कही ऐसा तो नहीं भगवान वो जो अपने अन्दर की अच्छाई से ज़्यादा समय मिला
और रावण वो जो अपने अन्दर की बुराई से ज़्यादा मिला
पर सोचने वाली बात ये है की राम हो या रावण, वो अपने आप से कितना अधिक मिले
और मैं तो अपने आप को ही नहीं मिल पाता हूँ, अपने साथ ही समय नहीं बिता पाता हूँ
पर जब यूँही कहीं चलते हुए इन रास्तों पर मैं कभी अपने आप से मिल जाता हूँ
बस ऐसा ही कुछ सोचता रह जाता हूँ...
- तरुण चंदेल
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4 comments:
This really touched my heart and spirit. Absolutely wonderful :-)
Great Site...Love to see this kind work.. If you are travel bird then only you can do work like this.
I too try to write and u r one of my greatest inspirations...as always this too is a fab post
Ye kabhi kabhi ye bhi sochti hu.
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